देश में अगर एक दूसरे की बात सुनने और उसके अच्छे तत्व ग्रहण करने का सिलसिला चल निकले और संवाद की मर्यादा स्थापित हो तो इससे गलतफहमी और तनाव स्वता ही कम होगा और यही लोकतंत्र है।
इस में गड़बड़ी वह लोग कर रहे हैं, जो यह दावा कर रहे हैं कि देखो हम जीत गए जबकि जितने की जरूरत भारत और उसके लोकतंत्र की है पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वहां पर भी कहा जो उन्होंने कांग्रेस पार्टी में लंबे संबंध के चलते और अपने अध्ययन-मनन से उपजे उधार विचारों से ग्रहण किया था।
उस सोच से मतभेद होते हुए भी एकरूपता के विचार वाले संघ ने उन्हें सुनकर शालीनता का परिचय दिया। प्रणव दा ने संवैधानिक देशभक्ति ,बहुलवाद जैसे मूल्यों को बचाने का आह्वान किया और यह भी कहा कि कट्टरता धर्म क्षेत्र नफरत के आधार पर राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की कोशिश-
हमारी राष्ट्रीय पहचान खत्म कर देगी उन्होंने बहुलता के विचार के लिए तिलक और गांधी के नेतृत्व में चलाए गए स्वाधीनता संघर्ष को श्रेय दिया और जवाहरलाल नेहरू का कई बार उल्लेख किया। उन्होंने व्याख्यान में से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने अपना भाषण दिया था ताकि स्पष्ट हो जाएगी संघ विविधता और वैचारिक भिन्नता के विरुद्ध नहीं है संघ हिंदुत्व की विचारधारा को इस राष्ट्र के केंद्रीय विचारधारा बनाने का लक्ष्य रखता है। इसी विचार के तहत संघ उन सभी धर्म के लोगों के हिंदू होने का दावा करता है, जो भारत में रहते हैं।
अब देखना है कि भाजपा के ४ साल के शासन में संघ और और असहमत राजनीतिक और सामाजिक समूहों ने जो असहजता महसूस की है ,क्या संघ *उसे दूर करने की कोशिश करेगा?
संपादक :आशुतोष उपाध्याय