इतिहास में दबा सच
भारत के तथाकथित सेकुलर पुरोगामी कहलानेवालों को अगर भारत की सेना की छवि को मलिन करनेवाली कुछ भी चीज मिलती है तो वे बड़े उत्साह में आ जाते हैं। और अगर एक ही समाचार में सेना और संघ को बदनाम करने का मौका मिले, और वो भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के काल्पनिक विभेद को दिखाते हुए, तो सोने पे सुहागा! पिछले कुछ दिनों से मीडिया में चल रही खबर ‘जनरल करिअप्पा की हत्या करने का षड्यंत्र’ कुछ इसी प्रकार की है। बस बात इतनी ही है की इस खबर को चलाने के लिए उन्होंने जो आधार चुना वह बिल्कुल खोखला है।
भारत के तथाकथित सेकुलर पुरोगामी कहलानेवालों को अगर भारत की सेना की छवि को मलिन करनेवाली कुछ भी चीज मिलती है तो वे बड़े उत्साह में आ जाते हैं। और अगर एक ही समाचार में सेना और संघ को बदनाम करने का मौका मिले, और वो भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के काल्पनिक विभेद को दिखाते हुए, तो सोने पे सुहागा! पिछले कुछ दिनों से मीडिया में चल रही खबर ‘जनरल करिअप्पा की हत्या करने का षड्यंत्र’ कुछ इसी प्रकार की है। बस बात इतनी ही है की इस खबर को चलाने के लिए उन्होंने जो आधार चुना वह बिल्कुल खोखला है।
क्या है षड्यंत्र का आरोप?
सीआईए के एक डी-क्लासीफाइड रिपोर्ट का सन्दर्भ देकर बनाया गया समाचार कहता है की “1950 में जब जनरल करिअप्पा पूर्व पंजाब के दौरे पर गए तो वहां उनकी हत्या का षड्यंत्र रचा गया, जो विफल रहा। इसके उजागर होते ही षड्यंत्र करनेवाले छह लोगों को मौत की सजा दी गई। भारतीय सेना में सिख अफसरों में जनरल करिअप्पा दक्षिण भारतीय होने के कारण काफी असंतोष है। आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) सेना के अफसरों के बीच उत्तर-दक्षिण के विभेद का लाभ उठा रहा है और सिख अफसरों को, जो खबरी की नजर में धोखेबाज और भरोसा करने लायक नहीं, असंतोष भड़काने के लिए उकसा रहा है। त्रावणकोर (मौजूदा केरल), मद्रास और महाराष्ट्र के अफसर जनरल करियप्पा के प्रति वफादार हैं।”
आरोपों का खोखलापन:
सीआईए ने अब तक सूचना के अधिकार के अमरीकी कानून के अंतर्गत 2 करोड़ से भी ज्यादा पृष्ठ, जो किसी समय गोपनीय थे, सार्वजनिक किये है। इसमें से कई रिपोर्ट तो यही दिखाती हैं की सीआईए का खुफिया तंत्र 1950-60 के दशक में कितना कमजोर था। केवल एक उदहारण देना तो, वियतनाम के बारे में सीआईए स्वयं ही कहती है,
“वियतनाम की वास्तविकता को जानने में हमारा अपयश अत्यंत दुखद वास्तव है, विशेषकर ऐसी वास्तविकताएं जो राजनितिक संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण थी। हम एक सम्प्रदाय को राजनीतिक पार्टी समझ बैठे, किसी गिरोह को संगठन समझ बैठे, किस अल्प अनुयायित्व वाले गुट को राजनीतिक दल समझ बैठे। हमने ये भी नहीं समझा की ये सभी गलतियाँ कितनी महँगी थी”।
सीआईए के बारे में बाकी सभी बातों को हम छोड़ भी दे तो भी, उसी काल में और शायद उसी व्यक्ति ने जनरल करिअप्पा के बारे में ही दूसरी रिपोर्ट में जो लिखा है, क्या वो वास्तविकता दिखाता है? दिसंबर 15, 1948 की सीआईए रिपोर्ट में ‘भारत के नए सेनाप्रमुख’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा गया है, “नए सेनाप्रमुख जनरल करिअप्पा, प्रथमदर्शनी खोखले, स्वभाव से अस्थिर चित्त, सेना के बारे में सही निर्णय करने में अक्षम लगते है । संभव है की वे भारत सरकार को सही सलाह देने के बजाय अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के पीछे पड़कर कश्मीर के बारे में अनुचित निर्णय करेंगे”।
मीडिया का जो गुट ‘षड्यंत्र’ वाला समाचार फैला रहा है, क्या वह जनरल करिअप्पा के बारे में सीआईए के ऐसे आकलन से सहमत है?
कश्मीर के बारे में आगे के घटनाक्रम ने यही दिखाया है की जनरल करिअप्पा ने निर्णय लेते समय केवल देशहित ही सामने रखा, जिसके कारण कश्मीर का बड़ा भूभाग सुरक्षित रहा। शायद इसी कारण जनरल करिअप्पा के सुपुत्र एयर मार्शल नंदा ने, इस रिपोर्ट को सिरे से नकार दिया।
उत्तर और दक्षिण भारत का काल्पनिक विभेद:
निवृत्त सेनाधिकारी और इण्डिया फाउंडेशन के डायरेक्टर श्री आलोक बंसल के अनुसार, “सेना में अपनी रेजिमेंट का ज्यादा प्रभाव होता है, न की अपनी जाति या क्षेत्र का। यह तो सभी जानते है की जनरल करिअप्पा 1923 से राजपूत रेजिमेंट में थे और उसका गौरव करते थे। 1953 में अपनी सेवानिवृत्ति के पहले भी अपने परिवार के साथ वे राजपूत रेजिमेंट को मिलने गए। यह बात भी प्रसिद्ध है की उत्तर भारत के सेनाधिकारी नाथू सिंह ने ही पंडित नेहरू को, जनरल करिअप्पा को सेनाप्रमुख बनाने के बारे में मनाया था, जब की नेहरू और कुछ समय तक ब्रिटिश सेनाप्रमुख ही रखना चाहते थे। और आज तक सेना में किसी को भी किसी षड्यंत्र के लिए फांसी नहीं दी गई है”।
सत्य क्या है?
वास्तव तो यह है की संघ और जनरल करिअप्पा दोनों एक दुसरे के शुभचिंतक और प्रशंसक रहे है। १९५९ में जनरल करिअप्पा मंगलोर की संघ शाखा के कार्यक्रम में गए थे। उन्होंने कहा “संघ कार्य मुझे अपने ह्रदय से प्रिय कार्यों में से है। अगर कोई मुस्लिम इस्लाम की प्रशंसा कर सकता है, तो संघ के हिंदुत्व का अभिमान रखने में गलत क्या है? प्रिय युवा मित्रो, आप किसी भी गलत प्रचार से हतोत्साहित न होते हुए कार्य करो। डॉ. हेडगेवार ने आप के सामने एक स्वार्थरहित कार्य का पवित्र आदर्श रखा है। उसी पर आगे बढ़ो। भारत को आज आप जैसे सेवाभावी कार्यकर्ताओं की ही आवश्यकता है”।
एक अन्य प्रसंग में, जब वे संघ का घोष का कार्यक्रम देखने गए, तो उन्हें बताया गया की एक विशिष्ट समय पर नियत स्थान पर घोष का सञ्चलन आएगा। वह उसके बारेमें इतने आश्वस्त नहीं थे, इसलिए जब बिलकुल सही समय पर वह सञ्चलन पहुंचा, तब उनके मुह से उत्स्फूर्त उदगार निकले, “Oh! Here they come!!
संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के जनरल करिअप्पा के साथ स्नेहपूर्ण सम्बन्ध थे, 21 नवम्बर 1956 को वे मैसूर में मिले थे और उस समय भाषा के प्रश्न पर श्री गुरूजी के विचार सुनकर वे प्रभावित हुए थे। 13 वर्ष बाद, 1969 में श्री गुरुजी के निमंत्रण पर श्री करिअप्पा उडुपी के विश्व हिन्दू परिषद के सम्मेलन में उपस्थित रहे। यह वही सम्मेलन है, जहाँ सभी संतों और मान्यवरों ने अस्पृश्यता को सिरे से नकारा था।
अगर सीआईए के एक डी-क्लासिफाइड रिपोर्ट के अनुसार वास्तव में षड्यंत्र होता और जनरल करिअप्पा को इसका पता होता तो क्या ऐसे सम्बन्ध वे संघ और संघ प्रेरित संस्थाओं से रखते?
सत्य तो यही प्रतीत होता है की भारत की सेना को, साथ में संघ को बदनाम करने में ही जिनका स्वार्थ छुपा हुआ है, जो उत्तर और दक्षिण भारत का काल्पनिक विभेद अपने चुनावी स्वार्थ के लिये बढ़ाना चाहते है, ऐसी ही शक्तियां इस काल्पनिक षड्यंत्र को फैला रही है। कौन हे वे शक्तियां? इसका अनुमान भी लगाना जरूरी नहीं, यह एक खुला रहस्य है।
लेकिन इस इतिहास को जानने के बजाएं लोग सिर्फ इस पर बयानबाज़ी कर रहे है ।
१९६९ के उडुपी विश्व हिन्दू परिषद के अधिवेशन में श्री गुरूजी के साथ जनरल करिअप्पा
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