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पितामह भीष्म महाभारत में एक ऐसा पात्र है जिनके बिना महाभारत की कथा अधूरी है सो आज हम इस लेख में पितामाह भीष्मके बारे में बात करने जा रहे की आखिर भीष्म पितामह का जीवन किसके कर्मो का फल था।

एक बार अष्ट वशु अपनी पत्नी के कहने पर पृथ्वी लोक के भ्रमण पर निकले, सभी धामों के दर्शन के बाद अष्ट वाशु अपनी पत्नी के साथ वशिष्ठ ऋषि के आश्रम पहुंचे जहाँ उन्होंने यज्ञशाला, पाठशाला आदि का भ्रमण किया। आश्रम में भरण करते वक़्त अष्ट वशु अपनी पत्नी के साथ आश्रम के गौशाला भी पहुंचे जहाँ उन्होंने एक गौ को देखा जिसका नाम नंदनी था, ये गौ अष्ट वशु की पत्नी को भा गया और वो अष्ट वशु से उस गौ को स्वर्ग ले जाने की हाथ करने लगी। अष्ट वशु ने अपनी पत्नी को बहुत समझाने की कोशिश की ऐसा करना गलत होगा हमें पाप लगेगा लेकिन वो नहीं मानी और कहने लगी की हे नाथ !  है तो देव है, अमर है सो हमें कैसा पाप लगेगा। पत्नी के हठ के सामने अष्ट वशु को घुटने टेकने परे और इन दोनों ने नंदनी गौ को चुराकर स्वर्ग लोक ले गये।

अगले प्रातः जब ऋषि वशिष्ठ गौ शाला  उन्होंने पाया की नंदनी गौ वहाँ मौजूद नहीं थी, उन्होंने आस-पास देखा पर कुछ पता नहीं लगने पर ऋषि वशिष्ठ ने अपनी दिव्यदृस्टि से पूरे घटना क्रम को देखा की कैसे अष्ट वशु और उनकी पत्नी गौ को चुराकर स्वर्ग लोक ले गये। ऋषि वशिष्ठ काफी क्रोधित हुए और जिसके फल स्वरुप उन्होंने आठो वसुवो को शाप दे दिया की उन्हें देव होने का इतना अभिमान है जिसके चलते वो अधर्म पर भी अपना हक़ समझते है अतः आठो वसुवो को पृथ्वी पर जन्म लेकर पृथ्वी लोक के कष्टों को भोगना होगा। इससे आठो वशु भयभीत होगये और उन्होंने त्रिदेव से प्रार्थना की जिसके फलस्वरूप अन्य 7 वसुवो को मुक्ति मिली।

कैसे सात वषुवों को मुक्ति मिली : 
राजा शांतनु और माता गंगा के 8 पुत्र हुए जिसमे से 7 को माता गंगा ने नदी में बहा बहा 7 वसुवो को मुक्त किया लेकिन जब आठवाँ पुत्र हुआ तो राजा शांतनु ने माता गंगा को आठवे पुत्र को नदी में बहाने से रोक दिया और इस तरह से पितामह भीष्म का जन्म हुआ और आठवे वशु ने पृथ्वी के कष्टों को झेला।

इंसान हो या देवता, सभी को अपने कर्मो को भोगना परता है। किसी भी प्राणी को अपनी शक्ति अपने ओहदे का घमंड नहीं करना चाहिए तथा नियमो का सही तरीके से पालन करना चाहिये। 

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