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कर्ण के जन्म की सम्पूर्ण कथा।

कुन्ती द्वारा ऋषियों का सेवा सत्कार :
धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर का पालन-पोषण भीष्म ने ही किया और जब वो बड़े हुए तो उन्हें अध्यन गुरुकुल भेजा गया। गुरुकुल में धृतराष्ट्र बल विध्या में, पाण्डु धनुर विध्या में और विधुर धर्म-निति में निपुण हुए। जब वो गुरुकुल से लौटे तो धृतराष्ट्र नेत्रहीन होने की वजह से  उत्तराधिकारी न बन सके, विदुर दासी पुत्र थे इसलिए उन्हें हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाया गया अंततः पाण्डु को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी  बनाया गया।  पितामह भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार नरेश शुबला की पुत्री गांधारी से करवाया, गांधारी ने पति-धर्म अपने नेत्रों पर सफ़ेद पट्टी बांधने का निर्णय किया। उन्ही दिनों यदुवंशी राजा सूरसेन की पुत्री कुन्ती भी युवावस्था को प्राप्त हो रही थी सो उनके पिता ने उनको राज्य में आये ऋषि मुनियो की सेवा मे लगा दिया, कुन्ती भी मन लगाकर राज्य अतिथि-गृह ऋषि-मुनियो की सेवा मन लगाकर करती थी।


ऋषि दुर्वासा द्वारा कुन्ती को मन्त्र देना :
एक बार की बात है सूरसेन के राज्य में ऋषि दुर्वासा पधारे, सूरसेन ने उनकी अतिथि-गृह में रुकने की व्यवस्था की, जहाँ कुंती ने मन लगाकर उनका सेवा- सत्कार किया।  कुन्ती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने कहा की हे पुत्री ! मै तुम्हारे सेवा-सत्कार से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, अतः मै तुम्हे एक मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तुम जिस भी देवता का स्मरण करोगी वो तुम्हारे सामने प्रकट होकर तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगे। दुर्वासा ऋषि कुन्ती को वो मन्त्र देकर चले गए। 

कुंती द्वारा मन्त्र की सत्यता जानना :
मन्त्र की सत्यता जानने के लिए कुंती ने एकांत में बैठकर उस मन्त्र जाप करते हुए सूर्य देव की प्रार्थना की, जिसके बाद वहाँ सूर्य देव प्रकट हुए और बोले - हे देवी ! तुम मुझे बताओ की तुम किस वस्तु की अभिलाषा मुझ से रखती हो, मै तुम्हारी उस अभिलाषा को अवश्य पूर्ण करूँगा। इस पर कुन्ती ने कहा हे देव ! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है, मैंने तो केवल मन्त्र की सत्यता जाँचने के लिए उसका जाप किया है। कुन्ती के इन वचनो को सुनकर सूर्यदेव बोले - हे देवी ! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता सो मै तुम्हे एक अत्यंत पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ, इतना कहकर सूर्यदेव अन्तध्यार्न हो गए। 

कुंती को सूर्यदेव द्वारा वरदान देना :
सूर्यदेव के जाने के बाद कुंती ने लज्जावश ये बात किसी को नहीं बताई, कुछ साये बाद कुन्ती के गर्भ से एक कवच-कुण्डल धारण किये हुए पुत्र ने जन्म लिया। कुन्ती ने बात को बिना किसी के पता चले बच्चे को मंजूषा में रखकर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पीला रहे थे। अधिरथ की नजर कवच-कुंडल धारण किये शिशु के मंजूषा पर गयी, चुकी अधिरथ निःसंतान थे उन्होंने उस बच्चे को अपनी पत्नी राधा को सौप दिया। अधिरथ और राधा ने बच्चे को अपने बच्चे की तरह पाला और बालक के कान काफी सुन्दर थे इसलिए उसका नाम कर्ण रखा गया।

इस कथा के मुख्य पात्र :
धृतराष्ट्र : विचितवीर्य के पुत्र | कौरवो के पिता | गांधारी के पति | पाण्डु तथा विदुर के भ्राता | 
पाण्डु : विचितवीर्य के पुत्र | पांडवो के पिता | कुन्ती तथा माद्री के पति | धृतराष्ट्र तथा विदुर के भ्राता |
विदुर : दासी पुत्र | धृतराष्ट्र तथा पांडवो के भ्राता |
कुन्ती : पाण्डु की पत्नी | कर्ण की माता | पांडवो की माता |
सूरसेन : कुन्ती के पिता |
दुर्वासा ऋषि : कुंती को मन्त्र का ज्ञान देने वाले ऋषि |

सम्पादक : विशाल कुमार सिंह 


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