आज हम बात करने जा रहे है वीर महाराणा प्रताप की लड़ी गई हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में।


मुगलों के माथे पर लिखी थी इस हार की कहानी:
हल्दीघाटी ,नाथद्वारा से करीब १६ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
गोगुंदा और खमनोर की पहाड़ी श्रेणियों के मध्य यह इतनी संकरी घटी थी कि इसमें दो आदमी भी साथ साथ नहीं चल सकते थे। एक घोड़े को भी इसमें पार करने में दिक्कत आती थी। यहां की मिट्टी के रंग हल्दी जैसा पीला होने के कारण इस स्थान को हल्दीघाटी कहा गया है। यह स्थान १८ जून १५७६ को प्रताप और मुगलो के मध्य निर्णायक युद्ध के कारण प्रसिद्ध हुआ।

राजा उदय सिंह की मृत्यु के बाद उनके जेष्ठ पुत्र महाराणा प्रताप २८ फरवरी,१५७२ को मेवाड़ के महराणा बने। उस समय मेवाड़ की राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न थी। इसके समस्त उपजाऊ भाग पर मुगलों का अधिकार था। प्रताप को मेवाड़ राज्य के कुल क्षेत्रफल का ३ प्रतिशत ही विरासत में मिला था। यह संपूर्ण क्षेत्र पहाड़ी इलाका था जहां कृषि उत्पादन आसान नहीं था।

अकबर ने १५६८ के तुरंत पश्चात मेवाड़ के अधीनस्थ हिस्से को अजमेर सूबे का भाग बना चित्तौड़ सरकार बना दी और वहाँ पर एक नया प्रशासकीय तंत्र स्थापित कर दिया। इस प्रकार राज्य के लिए  परिस्थितियां एकदम से प्रतिकूल थी।

चित्तौड़ धावे के पश्चात अकबर चित्तौड़गढ़ में ३ दिन ठहरा। इन ३ दिनों में दुर्ग में उपस्थित निर्दोष असैनिक जनता के कत्लेआम का आदेश दिया। माना जाता है कि ३०,००० से अधिक स्त्री ,पुरुष और बालको को मौत के घाट उतार दिया गया। इस क्रूरतापूर्ण और अमानुषिक कार्य का उद्देश्य शासकों तथा वहां की जनता को  आतंकित करना था।

अकबर के इस अनीति ,अन्यायपूर्ण  तथा लोमहर्षक कृत्य को भूलना प्रताप के लिए संभव नहीं था। प्रताप को ज्ञात था कि अगर वह ऐसा करता है तो मेवाड़ ही नही अपितु समस्त भारतीय जनता के साथ अन्याय होगा। इस प्रतिकूल परिस्थिति में समस्त जनमानस की निगाहें प्रताप की और टिकी हुई थी। प्रताप की एक आशा की किरण थे।

इधर अकबर की यह सोच थी कि मेवाड़ में अव्यवस्था की स्थिति के बाद भी प्रताप से युद्ध करना आसान नहीं होगा।
अतः उसने मेवाड़ को घेरने की नीति अपनाई। १५७२ तक अकबर ने मेवाड़ की उतर पूर्वी  और पश्चिमी सीमा की घेराबंदी कर दी। अकबर का गुजरात पर अधिकार होने से मेवाड़ दक्षिणी पश्चिमी-सीमा पर भी मुगलों का प्रभाव बढ़ गया।

अकबर ने प्रताप के भाई जगमाल को जहाजपुर में स्थापित कर दिया तो पूर्वी भाग में स्थित मेवाड़ के हुरडा, शाहपुरा ,बदनोर आदि को अजमेर की दरगाह को आर्थिक सहायता के रूप में प्रदान किया।

अकबर ने सोचा कि इस समस्त घटनाओं से प्रताप का मनोबल गिरेगा और वह अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश होगा। उसे प्रताप के बिना युद्ध के अधीनता लाने की संभावना प्रतीत हुई और उसने अपनी ओर से पहल कर  समझौते के लिए एक-एक करके एक वर्ष की अवधि में चार शिष्टमंडल इस उद्देश्य से भेजें लेकिन प्रताप ने उन्हें नकार दिया।



मेवाड़ की ओर मुगल सेना:

वास्तव में प्रताप की दृढ़ता, साहस, शौर्य  और उद्देश्य के प्रति निष्ठा को अकबर समझने में एकदम से असफल रहा। प्रताप का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता और अपनी संस्कृति को बचाए रखना था। वह इसे एक अपनी ऐतिहासिक दायित्व मानते थे।


इन्होंने प्रमुख स्थानों की किलाबंदी की:

इधर जब अकबर प्रताप की कारवाई से संतुस्ट हो गया और भारत के अन्य क्षेत्रों से जब बेफिक्र हो गया तब इसका ध्यान मेवाड़ की ओर आया।
वह इसी उद्देश्य से १८ मार्च १५७६ को फतेहपुर सीकरी से अजमेर के लिए रवाना हुआ और अजमेर पहुंचते ही विभिन्न करो पर विचार करते हुए मुगल अभियान के नेतृत्व का उत्तरदायित्व मानसिंह को सौंपने की घोषणा की।

मानसिंह को मेवाड़ का नेतृत्व देने के मुख्य दो कारण थे एक तो प्रताप को अपना सुरक्षित स्थान छोड़ युद्ध के लिए मैदानी क्षेत्र में लाना क्यों कि मुगल सेनाओं को मैदानी युद्ध क्षेत्र में अपनी सफलता की संभावना दिखती थी।
किंतु प्रताप ने युद्ध के लिए उपयुक्त स्थान को छोड़ना उचित न मान मुगल सेना को मेवाड़ के अतिरिक्त भाग में आने को बाध्य किया। इस प्रकार मानसिंह को भेजने की योजना सिद्ध हो गई।

मानसिंह दो मास तक मांडलगढ़ में ठहरा रहा। यहां विभिन्न स्थानों से मुगल सेनाए आकर मिले और फिर बनास नदी के किनारे-किनारे मोलेला गांव में आकर मानसिंह ने अपना शिविर स्थापित किया।


 इस प्रकार दो स्पष्ट विचारधाराओं के बीच जिस प्रकार प्रताप की युद्ध नीति का समन्वय किया वह, अत्याधिक आश्चर्यजनक था। प्रताप लोसिंग से रवाना हो हल्दीघाटी पहुंचे और १८जून १६७६ को प्रातः ही मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया।
मुगल सैनिक बनास के दूसरे किनारे से १०-१५किलोमीटर तक भाग कर अपनी अपनी जानें बचाई। इस प्रकार मुख्य युद्ध खेमनोर के पास हुआ । युद्ध मे इतना रक्त पात हुआ कि सारे क्षेत्र रक्तमय हो गया। तभी इस स्थल को रक्त तलाई के नाम से जाना जाता है।

इस संघर्ष में प्रताप के घोड़े चेतक को भी गंभीर रूप से चोट लगी। प्रताप को मुगल सेना ने घेर लिया।

इस तरफ ही आगे बहुत सी कहानियां है वीर महाराणा प्रताप जी के बारे में  मैं आशा करता हूं कि आपको यह पढ़कर अच्छा लगा होगा

संपादक:आशुतोष उपाध्याय